सौन्दर्य सृष्टि का मूल तत्त्व है। सृष्टि के बाहर और भीतर सौन्दर्य ही आनंद का सर्वातिशायी महाभाव है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण विश्व उस विराट चेतना की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति है। बहती हुई नदियों खिले हुए पुष्पों लहराते हुए वनों हिलोरे लेता सागर बर्फ से ढकी ऊँची – ऊँची पहाड़ की चोटियाँ तारिकाओं से आच्छादित आकाश – ये सभी सौन्दर्य की विराट चेतना को उजागर करते हैं। सृष्टि की मूल चेतना आनन्द है और आनंद की प्राप्ति में सौन्दर्य – तत्त्व सहायक सिद्ध होता है।
परं भक्त परं सौन्दर्य के पारखी महाकवि सूरदास जी को सब जानते ही होंगे बाह्य नेत्र बंद होते हुए भी अंदर के नेत्र से प्रेम और सौंदर्य का अवलोकन अतुलनात्मक है। महाकवि के अंतर्मन अवलोकन का एक उधारण:
खीजत जात माखन खात।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात।
कबहुँ झुक कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात॥
संसार की लगभग सभी वस्तुएँ सौन्दर्यमूलक हैं। मानव की चेतना का विकास वस्तुतः सौन्दर्य चेतना का ही विकास है। महाकवि प्रसाद ने सौन्दर्य को ‘ चेतना का उज्ज्वल वरदान कहा है।
प्रेम प्रेम ते होइ प्रेम तें पारहि जाइयै।
प्रेम बंध्यों संसार प्रेम परमारथ लहियै।
साँचों निहचै प्रेम को जीवन्मुक्ति रसाल।
एक निहचै प्रेम को जनै मिलै गोपाल।।
वस्तुतः प्रेम का आधार सौंदर्य है जो सभी को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। वस्तुतः कल्पना भावना और आनंद में सौन्दर्य चेतना प्रस्फुटित होती है।
समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोय।
मन की रुचि जेती तितै तित तेती रुचि होय।।
सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है मन के भीतर की वस्तु हे। अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति स्मृति कल्पना आदि द्वारा आनंद को उत्पन्न करने वाले वस्तु के गुण ही सौन्दर्य है। ‘ सौन्दर्य एक धारणा
वस्तुतः साहित्य और सौन्दर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य का सम्बन्ध अनुभूति से है और सौन्दर्य भी अनुभूतिगम्य है। साहित्य का उद्देश्य मानव – मन में छिपी सौंदर्यवृत्ति को उजागर करना है जो उसके मन – मानस में सोई रहती है। सौंदर्य आधार है और साहित्य आधेय है।
जिस प्रकार आधार के बिना आधेय की कल्पना नहीं की जा सकती उसी प्रकार सौन्दर्य के बिना साहित्य की कल्पना संभव नहीं है। साहित्य का मुख्य उद्देश्य सौंदर्य की प्रस्तुति है।
महाकवि सूरदास के सौंदर्य बोध के
भावों के अन्तर्गत प्रेम तत्व का विशेष महत्त्व है।प्रेम का मूलाधार लौकिक प्रेम ही है। लौकिक प्रेम वासना नहीं है बल्कि हृदय की एक महान् ललक है। निश्च्छलता नैसर्गिकता कष्ट सहिष्णुता सौंदर्यप्रियता हर्ष – उल्लासमयता बिरहाकुलता परानुरक्ति वात्सल्य भाव आदि प्रेम और सौंदर्य के विशिष्ट तत्त्व है।