यह क्या हुआ धरा को,
क्यों पगली होली है,
यह असर है संगिनी का
या खुद ही झल्ली होली है,
ओढी है ,चुनर खुशी की
या चुनर की ओढ़नी है
थिरके हैं, कदम जिसके संग
वह तो खुद ही बहकी हुई है
मटमैला और हरा
लगे रंग बड़ा सुहावना
अंबर तके तरू से
चित उछले चार गुना
संगिनी है जो तुम्हारी
वह तो है प्रियंवदा
प्रेम करना उसको हर क्षण
जैसे फूल महकता
यह क्या हुआ धरा को
क्यों पगली होली है……..
सिद्धि पोद्दार